दशक दर दशक, भारतीय सिनेमा की बदलती शैली

सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, भारतीय सिनेमा में आए बदलावों पर एक नज़र

Museum of Design Excellence की पेशकश

दिव्या ठाकुर, दीया पारेख, हितेश्री दास द्वारा

Film still of Devika Rani in Karma (1933)मूल स्रोत: Himanshu Rai (Producer)

भारतीय सिनेमा में प्रचलित शैलियों का परिचय

भारतीय फ़िल्म उद्योग की सालाना आमदनी, 247 करोड़ डॉलर है. यह आमदनी मुख्य रूप से हिन्दी, तेलुगु, और तमिल फ़िल्मों से होती है. हालांकि, मराठी, कन्नड़, मलयालम, पंजाबी, और गुजराती फ़िल्मों का भी इसमें योगदान है. हर साल, भारत में 1600 से ज़्यादा फ़िल्में बनती हैं. न सिर्फ़ भारत में रहने वाले 130 करोड़ लोगों, बल्कि विदेश में रहने वाले भारतीयों के दिल-ओ-दिमाग में भी भारतीय सिनेमा बसता है. इनके अलावा, भारतीय संस्कृति में रुचि रखने वाले लोग भी भारतीय सिनेमा को पसंद करते हैं. 

भारतीय सिनेमा, 1890 के दशक में अस्तित्व में आया. जैसे-जैसे दशक बीतते गए, भारतीय सिनेमा में कमाल के बदलाव आए. मूक फ़िल्मों के ज़माने से लेकर, बोलने वाली फ़िल्मों, और इसके बाद अपने सुनहरे दौर से होते हुए, आधुनिक और मौजूदा सिनेमा तक पहुंचे भारतीय सिनेमा ने सांस्कृतिक बदलावों में हमेशा अहम भूमिका निभाई है. साथ ही, कई बार संस्कृति को बचाने और समाज में सांस्कृतिक मूल्यों को दोबारा स्थापित करने में भी इससे मदद मिली.

अपने हर दशक में, भारतीय सिनेमा और खास तौर पर भारतीय सिनेमा के कलाकारों का पहनावा, दक्षिण एशियाई लोगों के लिए अपनी भावनाओं को ज़ाहिर करने का ज़रिया बना. फिर चाहे ये उनके विरोध के सुर रहे हों या फिर अपनी सहमति जताने का तरीका. पहनावों के ज़रिए लोग अपनी ऐसी बातें भी कह पाए जिनके लिए शब्द या तो कम पड़ते या फिर उनसे काम नहीं बन पाता. इसका नतीजा यह था कि फ़िल्म में जिस तरह का फ़ैशन दिखाया गया या कलाकारों ने जो फ़ैशन स्टेटमेंट अपनाया उसे हर धर्म और हर सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में रहने वाले लोगों के बीच लोकप्रियता मिली. यह एक तरह से सब लोगों को एक मंच पर लाने जैसा था.

Ruth Denis (c.1900)Museum of Design Excellence

1920 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: सितंबर 1920 में, भारत में असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई. इसका नेतृत्व, मोहनदास करमचंद गांधी कर रहे थे. इस आंदोलन की शुरुआत अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बाद फैले आक्रोश से हुई थी. ब्रिटिश जनरल की अगुवाई में यहां सैनिकों ने निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसा दी थीं. इस कार्रवाई में करीब 400 हिंदुस्तानी मारे गए और कई घायल हो गए. 

फ़िल्मों की थीम: 1920 के दशक की शुरुआत में, ज़्यादातर भारतीय फ़िल्में पौराणिक कहानियों पर आधारित थीं. हालांकि, धीरे-धीरे कई अन्य तरह के विषयों पर भी फ़िल्में बनने लगीं. जैसे, धार्मिक फ़िल्में, जिनकी कहानी ऐसी धार्मिक हस्तियों के बारे में थीं जो इतिहास का हिस्सा रहे थे. इनके अलावा, उस दौरान पूरी तरह से कल्पना पर आधारित फ़िल्में, "आधुनिक ज़िंदगी" पर आधारित सामाजिक फ़िल्में, भारत के गौरवशाली इतिहास पर आधारित ऐतिहासिक फ़िल्में, ऐक्शन फ़िल्में, कॉमेडी फ़िल्में, साहित्य पर आधारित फ़िल्में, और अपराध पर आधारित फ़िल्में भी बनीं. 

स्टाइल एलिमेंट: भारत में उस दौरान झिलमिल करती चोलियों का चलन शुरू हुआ, जिसमें चार्ल्सटन ड्रेस की झलक दिखती थी. इन ड्रेस की आस्तीनें लंबी होती थीं और इन्हें बनाने के लिए लेस, सैटिन, कॉटन या सिल्क फ़ैब्रिक का इस्तेमाल किया जाता था. इस दौरान, लंबी आस्तीनों और आधी आस्तीनों वाले ब्लाउज़ों के साथ पहनी जाने वाली साड़ियां भी लोकप्रिय होने लगीं.

Film still of Seeta Devi and Himansu Rai in A Throw of Dice, 1929, मूल स्रोत: Nadine Luque, Tim Pearce, Himansu Rai, Bruce Wolfe (Producers)
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Sulochana, 1920s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Master Nandram, c.1920, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Seeta Devi and Himansu Rai in Prem Sanyas, 1925, मूल स्रोत: Great Eastern Film Corporation Münchner Lichtspielkunst AG (Production House)
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Film still of Patience Cooper, 1920s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Devika Rani, 1920s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Hulton Archive की Naidu And Gandhi (1930-01-01)Getty Images

1930 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: 1930 का दशक, भारतीय इतिहास में काफ़ी अहम माना जाता है. इस दौरान, आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर हुए बदलावों की वजह से, एक के बाद एक ऐसी कई घटनाएं हुई जिन्होंने भारत की आज़ादी का रास्ता खोला. इन घटनाओं में से एक थी दुनिया भर में आई आर्थिक महामंदी, जिसे द ग्रेट डिप्रेशन के नाम से जाना जाता है. इस मंदी से भारत भी अछूता नहीं रहा था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर भी इसका असर पड़ा.

फ़िल्मों की थीम: इस दशक में इतिहास, देशभक्ति, पुरानी यादगार कहानियों, पौराणिक कथाओं पर आधारित फ़िल्में बनीं. इनके अलावा, फ़िल्मों में रोमांस, किसी खास मत के प्रचार के साथ-साथ सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था के लिए भी नाराज़गी दिखी. यह दौर, वास्तविक घटनाओं पर आधारित फ़िल्मों की शुरुआत का भी था 

स्टाइल एलिमेंट: 1930 के दशक में बॉलीवुड में मिली-जुली स्टाइल देखने को मिली. इसमें 'भारतीय' और 'पश्चिमी देशों से भारत आए' फ़ैशन, दोनों की झलक देखने को मिलती थी. फ़िल्मी पर्दे पर महिला कलाकार, आम तौर पर झालरदार आस्तीन वाले ब्लाउज़ के साथ साड़ियों में नज़र आती थीं. मेकअप के तौर पर पतली भौहों, आंखों का स्मोकी लुक, और गहरे लाल रंग की लिपस्टिक का चलन था. गोरा लगने के लिए, वे अपने चेहरे पर पाउडर लगाती थीं. साथ ही, उनकी हेयरस्टाइल 'फ़िंगर-वेव्स' (बालों को आगे-पीछे करके वेव जैसा या अंग्रेज़ी के अक्षर 'सी' जैसा बनाना) जैसी होती थी. उस दौरान, पुरुष कलाकार पर्दे पर ज़्यादातर सूट पहने नज़र आते थे.

Film still of Mumtaz Shanti and Ashok Kumar in Kismet, 1943, मूल स्रोत: Bombay Talkies (Production House)
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Pramathesh Barua and Jamuna Barua in Devdas, 1935, मूल स्रोत: New Theatres Ltd (Production House)
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Film still of Naseem, 1930s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Margaret Bourke-White की India Politics (1946-05)LIFE Photo Collection

1940 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: 1940 के दशक में भारत, औपनिवेशिक देश न रहकर एक आज़ाद देश बन चुका था. भारत में ब्रिटिश शासन खत्म हो जाने के बाद, नए आज़ाद भारत और पाकिस्तान के बनने से देश में बड़े पैमाने पर बदलाव हो रहे थे. आज़ादी के बाद हो रही घटनाएं बहुत बड़ी थीं और बड़े पैमाने पर हो रही थीं.

फ़िल्मों की थीम: इस दौरान इन मुद्दों पर फ़िल्में बनीं- धर्म और देशभक्ति के नाम पर संपत्ति लूटना और उसे बर्बाद करना, महिलाओं का अपहरण और उन्हें चोट पहुंचाना, ऐसा अत्याचार और ऐसी अमानवीय घटनाएं जिनके बारे में न तो बोला जा सकता है, न ही बताया जा सकता है, और ऐसी घटनाएं जो क्रूरता और भयानक घटनाओं के इतिहास में पहले कभी देखी नहीं गईं. भारत के विभाजन को झेल रहे फ़िल्म उद्योग ने उस समय, वास्तव में हो रही घटनाओं पर आधारित फ़िल्में बनाई. उस दौरान चुनी गई थीमें थीं- महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की आशंका, अपनी जन्म भूमि को छोड़ने का दुख, लोगों का एक जगह से दूसरी जगह जाकर बसना, इतने बड़े पैमाने पर लोगों को दोबारा बसाए जाने को लेकर उठ रहे सवाल, हिंसा से मिला डर और दर्द, और शरणार्थी कहे जाने का दुख.

स्टाइल एलिमेंट: इस दौर में, हाथ से बुने गए खादी के कपड़े, ब्रिटेन के कारखानों में बने कपड़ों के मुकाबले काफ़ी लोकप्रिय हुए. खादी के कपड़े दरअसल स्वदेशी आंदोलन से जुड़े होने का प्रतीक थे. ये सादे कपड़े लोगों में समाजवाद और देशप्रेम की भावना को दिखाते थे. इसी भावना की बदौलत आगे चलकर देश ने 1947 में आज़ादी हासिल की थी.

Guru Dutt and Waheeda Rehman in CID, 1956, मूल स्रोत: Guru Dutt (Producer)
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Shyam, 1940s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Begum Para, 1940s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Prithviraj Kapoor, 1940s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Gayatri Devi, third Maharani consort of Jaipur (1950s)Museum of Design Excellence

1950 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: आज़ादी के बाद के दशक में, पंडित नेहरू के शासनकाल में भारतीय उपमहाद्वीप की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर समाजवाद हावी रहा. इसका असर, फ़िल्म उद्योग पर भी साफ़ तौर पर दिखा. फ़िल्मों की कहानियों पर, प्रधानमंत्री नेहरू के आशा भरे आदर्शवादी विचार, स्वछंद सोच, और राजनीति को लेकर उनके सपनों जैसे दृष्टिकोण का असर भी पड़ा.

फ़िल्मों की थीम: इस दौरान पुनर्जन्म, रोमांस, ऐक्शन, मां और मातृभूमि पर आधारित फ़िल्मों के साथ-साथ आर्ट फ़िल्में बनीं. 

इस दशक में अलग तरह के गाने लिखे और गाए गए. उन्हें काफ़ी लोकप्रियता भी मिली. हालांकि, उन गानों के हर शब्द में निराशा और उदासी का भाव था. ये गाने उस समाज को दिखाते थे जहां न तो विकास हो रहा था और न ही लोग बदलने को तैयार थे. अंधविश्वास समाज में जड़ें जमाए बैठा था. अलग-थलग पड़े गांव थे, जिनमें मिट्टी से बने घर और निराश कर देने वाली गरीबी थी. जहां पुरुष मौत के गाने गा रहे थे और महिलाएं अन्याय और दुख को सह रही थीं. यह ऐसा समाज था जहां निराशा भरी पड़ी थी और लोग भाग्य के भरोसे बैठे थे. हालांकि, लोगों के अंदर पनपते विद्रोह और गुस्से को अभी फ़िल्मों में जगह नहीं मिली थी. 


स्टाइल एलिमेंट: विश्व युद्ध खत्म होने और आज़ादी मिल जाने के बाद के समय में, बड़े पर्दे पर नज़र आने वाली मधुबाला, मीना कुमारी, और नरगिस जैसी अभिनेत्रियों के स्टाइल स्टेटमेंट ने कई युवतियों को प्रभावित किया. फ़िल्म हावड़ा ब्रिज (1958) में मधुबाला के डीप-कट ब्लाउज़ और कैप्री पैंट वाले सेक्सी लुक और फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म में पूरी लंबाई वाले अनारकली सूट को काफ़ी लोकप्रियता मिली. इसके अलावा, मीना कुमारी के गहनों से लदे दरबार में नाचने वाली महिला के लुक ने भी लोगों का दिल जीता. स्वीटहार्ट नेकलाइन वाले ब्रोकेड ब्लाउज़ के साथ पारदर्शी साड़ी वाला लुक हमेशा पसंद किया जाता रहा.

Nargis, c.1950, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Movie Queens, James Burke, 1941-11, इनके संग्रह से लिया गया है: LIFE Photo Collection
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Film still of Nargis Dutt and Raj Kapoor, 1949, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Meena Kumari and Shammi Kapoor in Mem Sahib, 1956, मूल स्रोत: R.C Talwar
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Film still of Uttam Kumar and Suchitra Sen, 1950s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Lobby still of Meena Kumari in Mem Sahib, 1956, मूल स्रोत: R.C Talwar
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Dev Anand and Waheeda Rehman in CID, 1956, मूल स्रोत: Guru Dutt (Producer)
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लेखक: Arthur RickerbyLIFE Photo Collection

1960 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: इस दशक की शुरुआत, आने वाले समय के लिए कभी न खत्म होने वाली सकारात्मक सोच के साथ हुई. नेहरू की विचारधारा और आज़ादी के लिए रोमांचित कर देने वाली भावना से पूरा देश प्रभावित था. नया भारत बंटवारे के बाद पैदा हुई चुनौतियों से उबर रहा था और खुद का भविष्य लिखने के लिए तैयार था. 

फ़िल्मों की थीम: नेहरू के समय में, आशा से भरे भविष्य और आधुनिकता की तरफ़ कदम बढ़ा रहे भारत पर फ़िल्में बनने लगीं. उस दौरान लोकप्रिय हो रही फ़िल्में, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्र की पहचान और भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर थीं. 1960 का दशक रंग, उम्मीद, और तड़क-भड़क का था. 60 के दशक का, आज़ादी के बाद वाला बेफ़िक्र अंदाज़, किसी तरह की परेशानी को नज़रअंदाज़ करने का रवैया फ़िल्मों में भी दिखा. इससे कई युवा और काबिल फ़िल्म निर्माताओं को अपनी कला दिखाने का मौका मिला. वे नई चीज़ें दिखाकर अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए.

स्टाइल एलिमेंट: 60 के दशक में, अभिनेत्रियां तंग चूड़ीदार सूट और पहले के मुकाबले छोटे ब्लाउज़ में नज़र आने लगीं. कपड़े ऐसे होते थे जिनमें शरीर का कुछ हिस्सा नज़र आए. 60 के दशक में ही अभिनेत्रियों के सुडौल शरीर पर ज़ोर दिया जाने लगा. इस दशक में मेकअप के तौर पर पफ़ी बाल (पीछे की तरफ़ उठाकर बनाए गए बाल), विंग वाले आईलाइनर (आईब्रो की तरफ़ उठाकर लगाए गए आईलाइनर), और बालों के लिए 'साधना कट' काफ़ी लोकप्रिय हुआ.

Waheeda Rehman, 1960, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Simi Garewal, 1960s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Sadhana and Sunil Dutt in Mera Saaya, 1966, मूल स्रोत: Premji
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Mumtaz in Brahmachari, 1968, मूल स्रोत: G.P Sippy (Producer)
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Film still of Dev Anand, 1954, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Waheeda Rehman, c.1960, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Time Covers - The 70S (1971-12-20)LIFE Photo Collection

1970 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: 1947 के बंटवारे के बाद, 1971 की लड़ाई भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे अहम भौगोलिक-राजनैतिक घटना थी. इस लड़ाई की वजह से, बिना किसी बड़े हंगामे के बांग्लादेश का जन्म हुआ. यह एक ऐसी घटना थी जिसने पाकिस्तान को कमज़ोर और भारत को ताकतवर बना दिया. 

फ़िल्मों की थीम: इस दशक की शुरुआत, रोमैंटिक फ़िल्मों से हुई. हालांकि, आधा दशक बीतते-बीतते फ़िल्मों में ऐक्शन दिखने लगा, जिनकी कहानी, भ्रष्टाचार और हिंसा पर आधारित होती थी.

स्टाइल एलिमेंट: 70 के दशक की आकर्षक अभिनेत्री, ज़ीनत अमान ने कल्ट फ़िल्म हरे रामा हरे कृष्णा में युवा हिप्पी का किरदार निभाया. ज़ीनत अमान इस फ़िल्म में बड़ी बिंदी, पश्चिमी देशों की स्टाइल वाली शर्ट, बड़े चश्मे, ढीला नारंगी कुर्ता, और रुद्राक्ष की माला पहने नज़र आईं. ज़ीनत अमान के इस लुक ने भारत में, हिपस्टर ट्रेंड की शुरुआत की, जिसे लोग आज भी फ़ॉलो करते हैं. बॉलीवुड में, पारंपरिक और खासकर महिलाओं के लिए बने कपड़ों से अलग ढीले-ढाले हिप्पी कपड़ों का चलन दिखने लगा था. इस बदलाव को महिलाओं के मज़बूत और आत्मनिर्भर होने से जोड़कर देखा गया. ज़ीनत अमान के इस लुक की बदौलत, पश्चिमी देशों में लोकप्रिय रहा बोहेमियन स्टाइल अब बॉलीवुड में दिखने लगा था.

Film still of Zeenat Aman in Hare Rama Hare Krishna, 1971, मूल स्रोत: Dev Anand (Procuer)
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Film still Rishi Kapoor in Bobby, 1973, मूल स्रोत: Raj Kapoor (Producer)
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ONIDA का ONIDA 21 AdvertisementMuseum of Design Excellence

1980 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: 1980 के दशक में हुई घटनाओं से ही 90 के दशक में होने वाले आर्थिक सुधारों और उदारवाद की नींव पड़ी. इसके नतीजे के तौर पर देश में कई स्वदेशी उद्योग शुरू हुए, नए कारोबारियों को लोन मेला के ज़रिए बेहतर वित्तीय सेवाएं मिलनी शुरू हुईं. यह भारत के लिए एक नए युग की शुरुआत थी.

फ़िल्मों की थीम: 80 के दशक के आखिर और 90 के दशक की शुरुआत में, भारतीय सिनेमा में एक बार फिर बदलाव आया. गैंगस्टर और माफ़िया वाली फ़िल्मों की जगह एक बार फिर गानों से भरी रोमैंटिक फ़िल्मों ने ले ली. इस दशक में कई पारिवारिक फ़िल्में आईं, जैसे कि मिस्टर इंडिया, तेज़ाब, कयामत से कयामत तक (1988), मैंने प्यार किया (1989), हम आपके हैं कौन (1994), और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995). इनके अलावा, चांदनी, जो जीता वही सिकंदर, हम हैं राही प्यार के, बाज़ीगर, क्रांतिवीर, और रंगीला जैसी फ़िल्में बड़ी संख्या में दर्शकों को लुभाने में कामयाब रहीं. 80 और 90 के दशक में आई इन फ़िल्मों को ब्लॉकबस्टर, यानी लोकप्रियता और कमाई के मामलों में सफल फ़िल्में माना जाता है. इन फ़िल्मों ने बॉलीवुड को कई नए सितारे दिए. इनमें आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, जूही चावला, और काजोल शामिल हैं.

स्टाइल एलिमेंट: 80 के दशक में बिलकुल नए तरह का फ़ैशन दिखा. यह फ़ैशन ओवर द टॉप यानी उम्मीद से ज़्यादा तड़क-भड़क वाला था. इस दशक में, चमकने वाले गहने, कंधों पर लगने वाले बड़े पैड, भड़कीले रंग, मटैलिक रंगों वाली पोशाकें, बिखरे बाल, और पैरों को गर्म रखने वाली लंबी ज़ुराबें जैसी कई चीज़ें फ़िल्मों में दिखीं. इसके अलावा, इस दशक में भारतीय फ़ैशन डिज़ाइनरों की पहली पीढ़ी लोगों के सामने आई, जैसे कि रोहित खोसला और सत्य पॉल.

Film still of Mithun Chakraborty in Disco Dancer, 1982, मूल स्रोत: Babbar Subhash (Producer)
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Film still of Mithun Chakraborty, 1980s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Rekha in Khoon Bhari Maang, 1988, मूल स्रोत: Rakesh Roshan (Producer)
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Hema Malini, 1980s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Akshay Kumar (1990s)Museum of Design Excellence

1990 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: बाबरी मस्जिद पर हुए हमले के बाद, सांप्रदायिक भावनाएं अपने चरम पर थीं. 18 मुस्लिमों की हत्या कर दी गई थी. कई घर और दुकानें जला दी गईं और उन्हें बर्बाद कर दिया गया. इनमें 23 स्थानीय मस्जिदें भी शामिल थीं. इन घटना का नतीजा पूरे देश में कई जगहों पर दंगों के रूप में सामने आया. इन दंगों में करीब दो हज़ार लोग मारे गए.

फ़िल्मों की थीम: इस दौरान, वास्तविक घटनाओं, परिवार, समाज (आधुनिक बनाम परंपरागत), और देशभक्ति पर आधारित फ़िल्में बनीं. साथ ही, ऐक्शन के साथ कॉमेडी और गानों से भरी रोमैंटिक फ़िल्में बनाई गईं. साल 1991 के बाद भारत में हुए ज़बरदस्त आर्थिक विकास और समाज में हो रहे बदलावों का असर, भारतीय फ़िल्म उद्योग पर भी हुआ. समाज में मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या बढ़ने लगी थी. इसका असर यह हुआ कि एक खास वर्ग के दर्शकों के लिए बनाई जाने वाली आर्ट फ़िल्मों और हर तरह के दर्शकों के लिए बनने वाली बॉलीवुड फ़िल्मों के बीच का दायरा खत्म हो गया.


स्टाइल एलिमेंट: देश में आए आर्थिक उदारवाद और बड़े पैमाने पर होने वाले ग्लोबलाइज़ेशन से भारतीय सिनेमा भी अछूता नहीं रहा था. कभी भारतीय सिनेमा में फ़ैशन के नाम पर दिखने वाले गिने-चुने डिज़ाइन की जगह अब कुछ नया दिखाने का समय था. फ़िल्मी पर्दे पर अब पूरे देश में आरामदेह और कैज़ुअल स्टाइल के कपड़े नज़र आने लगे.

Salman Khan, 1990s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Shilpa Shetty, 1990s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Raveena Tandon, 1990s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Karishma Kapoor, 1990s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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LIFE Photo Collection

2000 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: साल 2008 में आई आर्थिक मंदी, 1929 में आए द ग्रेट डिप्रेशन के बाद की सबसे बड़ी मंदी थी. इससे भारत की अर्थव्यवस्था के विकास की रफ़्तार भी धीमी पड़ गई. साल 2008 में 15 सितंबर को लीमन ब्रदर्स ने खुद को दिवालिया घोषित किया था. हालांकि, इस घटना को सरकार में मौजूद कई लोगों ने शुरुआत में गंभीरता से नहीं लिया. 

फ़िल्मों की थीम: यह दशक, रोमांस, कॉमेडी, ऐक्शन-कॉमेडी, ड्रामा, देशभक्ति, वास्तविक घटनाओं पर आधारित फ़िल्मों का था. इसके अलावा, फ़िल्मों में ऐसे संयोग दिखाए जाते थे जिन्हें लोग आसानी से समझ लें. हालांकि, सबसे बड़ा बदलाव यह था कि पहली बार फ़िल्मों में सामाजिक परेशानियों से परे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे ने भी जगह बनाई.

स्टाइल एलिमेंट: 2000 के दशक में, भारतीय फ़ैशन में एक नई स्टाइल नज़र आई. यह आधुनिक भारतीय स्टाइल थी जिसके ज़रिए पर्दे पर बेफ़िक्री और सुकून को दिखाया गया.

Hrithik Roshan, 2000s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Aamir Khan in Ghulam, 1998, मूल स्रोत: Mukesh Bhatt (Producer)
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Shahrukh Khan, 2000s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Preity Zinta, 2000s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Film still of Deepika Padukone in Bajirao Mastani (2015)मूल स्रोत: Tiger Sharma & Kishore Lulla (Producers)

2010 का दशक

सामाजिक-आर्थिक पहलू: इस दौर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के तहत, गैर-कानूनी तरीके से रहने वाले अप्रवासियों के प्रति अपनाए जा रहे रवैये को बदलने पर चर्चा हो रही थी. ये अप्रवासी, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, पारसी, बौद्ध, और ईसाई धर्म के ऐसे लोग थे जो भारत में बिना किसी कानूनी दस्तावेज़ के रह रहे थे. इसके तहत, इन अप्रवासियों को जल्द से जल्द भारतीय नागरिकता दी जानी थी.

फ़िल्मों की थीम: इस दशक में फ़िल्मों में वास्तविक घटनाओं, आधुनिक समय के परिवार, और समाज पर केंद्रित फ़िल्में बनीं. इनके अलावा, फ़िल्मों में समाज के मुद्दों को बारीकी से दिखाया गया. साथ ही, ऐसी फ़िल्में बनीं जिन्हें देखकर दर्शकों को खुशी मिलती थी 

स्टाइल एलिमेंट: हाल की बात करें, तो 2010 ने हमें सोशल मीडिया दिया और फिर ऐसे लोग सामने आए जो इसके ज़रिए समाज पर प्रभाव डालते हैं! यह दौर सुपर सेक्सी कपड़ों को गुडबाय करने और ऐसे कपड़ों को अपनाने का था जो जिम में पहने जाते थे, लेकिन फ़ैशनेबल थे. लोगों का पूरा ध्यान मशहूर हस्तियों की स्टाइल को छोड़कर, आम लोगों जैसे पहनावे पर जाने लगा.

Rajkumar Rao, 2010s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Deepika Padukone at Cannes Film Festival, 2019, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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John Abraham, 2010s, इनके संग्रह से लिया गया है: Museum of Design Excellence
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Silhouettes of Indian Style | Sonam Kapoor, The House of Pixels, 2022, मूल स्रोत: The House of Pixels
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