द थर्ड मीनिंग नाम के निबंध में, फ़्रांस के साहित्यिक सिद्धांतकार और दार्शनिक रोलैंड बार्थ्स ने सिनेमा में विज़ुअल की रस्साकशी के ऊपर एक विरोधाभासी बात कही: उनके मुताबिक मोशन पिक्चर की सही पहचान फ़िल्म की फ़ोटो में बेहतर तरीके से झलकती है.
फ़ोटो और मायने, पार्ट एक - फ़ोटो की गूंज हज़ारों शब्दों के असर से ज़्यादा होती है और यह लंबे समय तक बरकरार रहती है
इस तरह की इमेज में कैद किए गए पलों में, बार्थ्स को कई ऐसे मतलब दिखे जिन्हें शब्दों में बयां करना मुश्किल है.
Unknown का Photographic lobby still for the film 'Mere Ghar - Mere Bachchay'Museum of Art & Photography
वे यह बात याद दिलाते हैं कि फ़िल्म की फ़ोटो के चंद पलों में ऐसी जानकारी झलकती है जिसकी गहरी बातों पर हम सिनेमा के दौरान गौर नहीं कर पाते. हालांकि, ये पल दर्शकों के ज़ेहन में घर कर जाते हैं.
इस जानकारी में, उनके शारीरिक हाव-भाव की बारीकियों से लेकर उनकी पोशाक और किसी सीन के लिए खूबसूरती से सजाए गए सेट जैसी चीज़ें शामिल हो सकती हैं.
इस बात को स्वीकार करना मुश्किल लग सकता है कि मोशन पिक्चर्स की खासियत को फ़िल्म की फ़ोटो के ज़रिए समझा जा सकता है. हालांकि, फ़िल्म की फ़ोटो, सिनेमा के सबसे प्रभावी विज़ुअल तरीके से संबंधित है, यानी टेबलो से.
इसलिए यह कहना सही है कि फ़िल्म की फ़ोटो, सिनेमा के शुरुआती जुनून को दर्शाने के साथ-साथ उसकी मूल और स्वाभाविक अपील को दिखाने के काबिल है.
सिनेमैटिक टेबलो के अलग-अलग आयाम- पहला पार्ट
टेबलो को अलग-अलग कलाओं में अलग-अलग तरीके से समझा जा सकता है. इसे सिनेमा में कई तरह से दिखाया जाता है. म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट ऐंड फ़ोटोग्राफ़ी में फ़िल्म की फ़ोटो के संग्रह से यह पता चलता है कि टेबलो ने हिन्दी सिनेमा में अपनी जगह बनाने के लिए कौनसे तरीके और रास्ते अपनाए हैं.
Possibly Babulal Jajodia का Photographic lobby still for the film 'Hum Kahan Ja Rahe Hain'Museum of Art & Photography
टेबलो और सिनेमा
टेबलो का इस्तेमाल सिनेमा में कई तरीकों से किया गया है. लेकिन, सिनेमा में इसका सीधे तौर पर इस्तेमाल टेबलो शॉट के ज़रिए किया गया है.
भारतीय फ़िल्म विचारक और इतिहासकार रवि वासुदेवन के मुताबिक, टेबलो शॉट को कैमरे के सामने 180 डिग्री की समतल जगह से और एकदम स्थिर होकर कैद किया जाता है. इन इमेज को लेने के दौरान, यह कोशिश की जाती है कि किसी भी तरह की हलचल न हो. लेकिन, इनमें कई गहरे मायने कैद किए जाते हैं.
फ़ोटो और मायने, दूसरा पार्ट
Unknown का Photographic lobby still for the film 'Boot Polish'Museum of Art & Photography
अपने अलग अंदाज़ की वजह से, यह शॉट एक खास फ़ोटो की तरह होता है, जिसका न सिर्फ़ खुद में एक खास मतलब है, बल्कि यह किसी बड़ी कहानी का हिस्सा भी होता है. इसलिए, फ़िल्म की फ़ोटो में टेबलो शॉट इस्तेमाल किए जाने पर, अक्सर खास जानकारी मिलती है.
फ़िल्म बूट पॉलिश (1954) का यह फ़ोटो, खराब परिस्थितियों के बीच एक सुनहरे भविष्य की आशा बनाए रखने की ज़िद की वकालत करता है.
सिनेमा में टेबलो के अलग-अलग तरीकों से मायने निकाले जाने के बावजूद, इसमें एक बात समान रही है: इसे किसी खास पल की स्थिरता के साथ जोड़कर देखा जाता है और इस तरह पेश किया जाता है कि उसकी खासियत में कई परतें शामिल हों.
Unknown का Film still for 'Dahej'Museum of Art & Photography
विक्टर बर्गिन के मुताबिक, टेबलो एक ऐसी इमेज है जो “एक विज़ुअल किसी खास इवेंट का निचोड़ कैद कर लेती है, जिसे बयां करने में बहुत से शब्द भी कम पड़ जाते हैं”.
उदाहरण के लिए, फ़िल्म दहेज (1950) की इस फ़ोटो में फ़िल्म की एक खास घटना को दिखाया गया है.
इसमें अलग-अलग जानकारी को एक इमेज के ज़रिए एक साथ पेश करने की कोशिश की गई है. साथ ही, फ़िल्म के कई अहम किरदारों के बीच के तालमेल की तरफ़ इशारा भी किया गया है.
फ़ोटो और मायने, तीसरा पार्ट - कहानियां बयां करने वाली इमेज
Unknown का Film still for an unknown filmMuseum of Art & Photography
टेबलो और उसके मायने
टेबलो के बारे में बताते हुए, बार्थ्स इसे जी॰ ई॰ लेसिंग के “पेरीपटाया” या “उम्मीद से भरे क्षण” की कल्पना से जोड़कर देखते हैं, यानी एक ऐसा पल जो “वर्तमान, भूत, और भविष्य” को एक ही झलक में पेश करता है.
Possibly Mudnaney Film Service का Photographic lobby still for the film 'Laila'Museum of Art & Photography
उदाहरण के लिए, फ़िल्म लैला (1954) की फ़ोटो में, कहानी के उस पल की तरफ़ इशारा किया गया है जिसमें किरदारों में नैतिक और भावनात्मक बदलाव आते हैं और कहानी में एक नया मोड़ आ जाता है.
Film still of actor Raj Kapoor and Nargis, from the Hindi film Awara (1951/1951)Museum of Art & Photography
फ़िल्म आवारा (1951) की यह फ़ोटो उस पल को दिखाती है जिसमें मुख्य किरदारों के बीच टकराव वाली स्थिति हो और वह समय जब उनके बीच का विवाद खत्म हो गया हो.
बार्थ्स के हिसाब से, टेबलो उस पल की तरह है जिसमें वर्तमान, भूत, और भविष्य मिलते हैं. पीटर ब्रुक्स के मुताबिक, यह एक ऐसी इमेज है जो वर्तमान पल को असरदार तरीके से संक्षेप में बयां करती है.
वे कहते हैं कि टेबलो उस पल को दर्शाता है जिसमें “किरदारों के नज़रिए और हाव-भाव” को “कुछ इस तरह गढ़ा गया हो”, ताकि “भावनात्मक मोड़ को संक्षेप में बताया जा सके”.
Kamat Foto Flash की Film still of actor Guru Dutt and Waheeda Rehman, from the Hindi film Chaudvi Ka Chand (1960/1960)Museum of Art & Photography
किरदारों के शरीर और उनके चेहरे के हाव-भाव के साथ में देखा जाए, तो उनकी वैचारिक और नैतिक स्थिति के बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है.
उदाहरण के लिए, फ़िल्म चौदहवीं का चांद (1960) की कहानी के टेबलो में, दो किरदारों के बीच के पावर प्ले और भावनात्मक समीकरण को दर्शाया गया है.
Unknown का Photographic lobby still for the film 'Rangeela'Museum of Art & Photography
लॉबी में दिख रहे इस टेबलो में, डर के पल को कैद किया गया है. नायक के चेहरे पर दिख रहे इन हाव-भाव से इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि फ़िल्म रंगीला (1960) की कहानी किस दिशा में बढ़ेगी: इस इमेज के कलात्मक पहलू को देखकर लगता है कि वह हंसी-ठहाके वाली कॉमेडी फ़िल्म हो सकती है.
जिस टेबलो के ज़रिए ब्रुक्स अपनी बात कहते हैं वह कहानी को बयां करने के मेलोड्रामा के तरीके से मेल खाता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह किरदारों की भावनात्मक और नैतिक मनोदशा को दिखाता है. साथ ही, उनके लिए गए फ़ैसलों के मुताबिक उनकी वैचारिक स्थिति का दायरा भी तय करता है. टेबलो की ऐसी खासियत, आज़ादी के तुरंत बाद के हिन्दी सिनेमा के मैनिकियन वर्ल्ड ऑर्डर में इसे खास जगह दिलाती है.
Unknown की Photographic still featuring Lalita Pawar and Sulochana Latkar, from the Hindi film, Sajni (1956)Museum of Art & Photography
इस फ़ोटो में दर्शाए गए पल में, हर किरदार की नैतिकता साफ़ तौर पर समझ आती है.
जहां एक अच्छी, विनम्र, और नैतिकता का पालन करने वाली महिला काम करने में व्यस्त है,
वहीं एक बुरी, हुक्म चलाने वाली, और किसी भी सिद्धांत को न मानने वाली महिला उसे एकटक देख रही है.
फ़ोटो और मायने, चौथा पार्ट: किरदारों की नैतिकता को बयां करने वाली इमेज
Unknown का Photographic lobby card for the film 'Jhansi Ki Rani'Museum of Art & Photography
टेबलो और प्रमोशन
आज़ादी के बाद के दौर में, फ़िल्म के विज्ञापन और प्रमोशन में इस फ़ोटो ने मुख्य भूमिका निभाई. इसने फ़िल्म की कहानी को पत्रिकाओं और लॉबी कार्ड में दर्शाया.
इसके चलते, उम्मीद भरे पलों के टेबलो या फ़िल्म की कहानी को संक्षेप में कहने वाले पलों के टेबलो, सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई जाने वाली स्टिल (फ़ोटो) का ही एक बड़ा हिस्सा होती हैं.
प्रमोशन के लिए इस्तेमाल होने वाले टेबलो, पार्ट एक: ऐसी इमेज, जिनकी मदद से कहानियां बताई जाती हैं
फ़िल्म इतिहासकार स्टीवन जेकब्स के मुताबिक, 1900वीं सदी की शुरुआत में खींचे और प्रसारित किए गए फ़िल्म स्टिल का मकसद "कहानी बताना", "एक संवेदनशील स्थिति की तरफ़ इशारा करना," और "मनोरंजक या रोमांचक घटनाक्रम और दृश्यों का सुझाव देना" था. इसका मतलब था कि फ़िल्मों की करीब हर फ़ोटो, जो पत्रिकाओं में या लॉबी कार्ड पर दिखती हैं, वे बार्थ्स या ब्रुक्स की कल्पनाओं का उदाहरण थीं: या तो एक उम्मीद से भरा पल या ऐसा पल जो महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है.
प्रमोशन के लिए इस्तेमाल होने वाले टेबलो, दूसरा पार्ट: ऐसी फ़ोटो जो नाज़ुक पलों की तरफ़ इशारा करती हैं
Unknown का Film still for possibly 'Farz Aur Mohobat'Museum of Art & Photography
उदाहरण के लिए, कॉस्ट्यूम ड्रामा फ़िल्म फ़र्ज़ और मोहब्बत (1957) की यह फ़ोटो, ड्रामा और कहानी में बढ़ते तनाव की तरफ़ इशारा करती है.
फ़िल्म विचारक बेन ब्रूस्टर और लिआ जेकब्स ने पाया कि टेबलो शब्द का इस्तेमाल शुरुआत में उस बोर्ड के बारे में बताने के लिए किया गया था जहां थिएटर में होने वाली आकर्षक गतिविधियों की घोषणा की जाती थी. इस संदर्भ में, यह सही है कि लॉबी कार्ड पर दिखने वाली फ़ोटो, जो फ़िल्म के आकर्षणों के बारे में बताती हैं, टेबलो से काफ़ी हद तक मिलती-जुलती हैं.
विज्ञापन के आकर्षण, पहला पार्ट
पृथ्वी वल्लभ (1943), झांसी की रानी (1953), और वामन अवतार (1955) के लॉबी कार्ड, फ़िल्मों के आकर्षक पलों की एक झलक देते हैं, जिनमें अलग-अलग तरह के कॉस्ट्यूम और भव्य सेट शामिल हैं.
विज्ञापन के आकर्षण, दूसरा पार्ट
कारीगर (1958) और श्री 420 (1955) की लॉबी फ़ोटो का हर टेबलो, गीत-नृत्य के शानदार दृश्य को दर्शाता है. इस तरह के दृश्यों को नियमित रूप से लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्मों के आकर्षण का आधार माना जाता रहा है.
Unknown का Photographic lobby still for the film 'Mehlon Ke Khwab'Museum of Art & Photography
टेबलो का इतिहास
फ़िल्म विचारक नोएल बर्च सिनेमाई टेबलो को कला के अन्य रूपों से जोड़ते हैं, जिनसे सिनेमा के शुरुआती दर्शक परिचित थे. उनका कहना है कि टेबलो के निर्माण ने फ़िल्म निर्माताओं को नए माध्यम की कला को पहले से मौजूद कला रूपों, जैसे पेंटिंग और थिएटर की पुरानी प्रथाओं के सांचे में ढालने में सक्षम बनाया.
सांस्कृतिक विचारक और कला समीक्षक विक्टर बर्गिन ने टेबलो शब्द की जड़ों का पता लगाया है. यह सोलहवीं शताब्दी के मध्य में "ऐतिहासिक पेंटिंग" की कला से शुरू होता है, जिसमें एक कलाकार को "एक ही पल में वह सब दिखाना होता है, जो आगे होने वाला है". इस तरह के काम को पूरा करने के लिए, कलाकार ने एक ऐसा पल दिखाने का फ़ैसला किया जो “पूरी कहानी का संक्षिप्त विवरण देता हो”, एक ऐसा पल, “जिसमें सब कुछ ठीक हो जाता हो”.
फ़ोटो और मायने, पांचवां पार्ट: ऐसी इमेज जो उन पलों को दर्शाती हैं जिनमें "सब कुछ ठीक हो जाता हो".
बर्गिन ने पाया कि इन ऐतिहासिक क्षणों का चित्रण करने के लिए, सबसे अच्छा ज़रिया इंसान ही है. इस ज़रूरत ने एक ऐसे टेबलो को जन्म दिया, जिसमें इंसान एक अहम ऐतिहासिक पल का हिस्सा है.
फ़ोटो और मायने, छठा पार्ट- सिनेमैटिक टेबलो में लोकप्रिय मिथक
इस संदर्भ में, यह बिलकुल आश्चर्यजनक नहीं है कि इतिहास और पुराण से जुड़ी हिन्दी फ़िल्मों में इस तरह के टेबलो को दिखाया जाना बहुत आम बात थी. इन फ़ोटो में इतिहास और मिथकों से जुड़ी बड़ी घटनाओं को ऐसे किरदारों के ज़रिए दिखाया गया जिनकी सांस्कृतिक और सामाजिक अहमियत है.
Unknown का Photographic lobby card for the film 'Jhansi Ki Rani'Museum of Art & Photography
इतिहास की किसी बड़ी घटना या काल्पनिक मिथक की किसी लोकप्रिय कहानी को दिखाने वाले टेबलो बहुत आम थे. इन्हें फ़िल्मों में शामिल करने से इनकी लोकप्रियता बढ़ गई.
उदाहरण के लिए, इस सीन में झांसी की रानी को दिखाया गया है — जिनके बारे में भारतीय इतिहास के आधिकारिक स्रोतों में विस्तार से बात की गई है और समाज में जिनकी बहादुरी की हमेशा चर्चा की जाती है.
हालांकि, सिनेमाई टेबलो की वैचारिक जड़ें इतिहास से जुड़ी पेंटिंग में खोजी जा सकती हैं, लेकिन इसके सौंदर्य से जुड़ी विशेषताओं को खंगालने के लिए, हमें मौजूदा दौर के कला रूपों की ओर जाना होगा. कई फ़िल्म और कला विचारकों ने देश में बनी फ़िल्मों पर मशहूर भारतीय पेंटर राजा रवि वर्मा के असर की बात की. इनमें मधुजा मुखर्जी और आशीष राजाध्यक्ष जैसे विचारक शामिल हैं.
रवि वर्मा की बनाई, देवियों और महिलाओं की पेंटिंग को 19वीं सदी के अंत तक विज़ुअल कल्चर का ज़रूरी हिस्सा माना जाने लगा था. उनकी पेंटिंग ओलियोग्राफ़, कैलेंडर आर्ट, और पोस्टर प्रिंट के तौर पर कम कीमत में उपलब्ध थीं. उनकी कला ने अगले कई दशकों तक, कला को लेकर देश के लोगों की सोच पर असर डाला.
अलग-अलग फ़िल्मों में महिलाओं का चित्रण, रवि वर्मा की पेंटिंग की तर्ज़ पर किया गया. उनकी पेंटिंग में महिलाओं को बेहद शानदार ढंग से पेश किया गया था. उनके कपड़ो और मुद्राओं पर खास ध्यान दिया गया था.
राजा रवि वर्मा के टेबलो और लोकप्रिय सिनेमा में महिलाएं, पहला पार्ट
इन कलाकारों की फ़िल्मी छवि पर गौर करें, जो रवि वर्मा के सौंदर्यबोध से काफ़ी हद तक मेल खाती हैं. नारीत्व दिखाते समय तिरछी नज़र, हल्का झुका चेहरा, और कलाकारों के कपड़े, बहुत हद तक रवि वर्मा की स्टाइल की याद दिलाते हैं.
राजा रवि वर्मा के टेबलो और लोकप्रिय सिनेमा में महिलाएं, दूसरा पार्ट
कभी-कभार, रवि वर्मा की पेंटिंग को भी फ़िल्मों में टेबलो विवांत के तौर पर जगह मिल जाती थी. इसका शाब्दिक अनुवाद करने पर मतलब निकलता है “लिविंग आर्ट”.
राजा रवि वर्मा के टेबलो और लोकप्रिय सिनेमा में महिलाएं, तीसरा पार्ट
असल में, टेबलो विवांत में किसी आर्टवर्क (जैसे पेंटिंग या एचिंग) को स्टेज पर दोबारा प्रस्तुत करने की बात होती है. इसे सिनेमा में भी शामिल किया जाता है और फ़िल्म के प्रमोशन में इस्तेमाल किए जाने वाले कॉन्टेंट में दिखाया जाता है. किरदार, पेंटिंग का अवतार धारण कर लेते हैं, वे स्थिर खड़े रहते हैं और इसे अलग-अलग नज़रिए से देखा जाता है. इनमें सिनेमा को नई ऊंचाइयां छूते देखने और दूसरे कलाकारों के प्रभाव जैसी बातें शामिल होती हैं.
Unknown का Photographic lobby still for 'Baiju Bawra' featuring Meena KumariMuseum of Art & Photography
फ़िल्म बैजू बावरा (1952) और एस॰ एल॰ हल्दंकर की लोकप्रिय पेंटिंग ग्लो ऑफ़ होप के बीच की समानता पर विचार कीजिए. हल्दंकर की इस पेंटिंग को कई बार, रवि वर्मा की पेंटिंग के तौर पर प्रस्तुत किया गया और मौजूदा समय में इसे मैसूर के जगमोहन पैलेस के जयचमा राजेंद्र आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी के लिए रखा गया है.
टेबलो विवांत के अलावा, यह टेबलो अलग-अलग माध्यम से होता हुआ थिएटर और फिर सिनेमा तक पहुंचा है.
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में थिएटर वाले टेबलो, पहला पार्ट
उदाहरण के लिए, बार्थ्स सिनेमैटिक टेबलो के भाव के बारे में बताते हुए, फ़्रांसीसी दार्शनिक डेनिस डिडरो को कोट करते हुए कहते हैं कि टेबलो एक शानदार नाटक को जन्म देता है, जैसे कि एक गैलरी या एक प्रदर्शनी. जो फ़िल्में कहानी बयां करने के दौरान, डिडरो के इस सिद्धांत पर चलती हैं उनसे ऐसे कई टेबलो का निर्माण किया जा सकता है जिनसे फ़िल्म की शानदार फ़ोटो बनाई जा सकती हैं.
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में थिएटर वाले टेबलो, दूसरा पार्ट
उदाहरण के लिए, जागते रहो (1956) को कई भागों में प्रस्तुत किया गया है. इसमें, गांव से आए एक प्यासे कामगार को शहर के अलग-अलग तरह के लोगों के साथ, एक ग्लास पानी के लिए जद्दोजहद करते हुए दिखाया गया है. इस फ़िल्म के लॉबी कार्ड में, एक के बाद एक कई टेबलो दिखाए गए हैं, जिनमें मुख्य किरदार के अनुभवों और आखिर में उसे हुए एहसास को दिखाया गया है.
जागते रहो, पहला पार्ट
जागते रहो, दूसरा पार्ट
जागते रहो, तीसरा पार्ट
Possibly Babulal Jajodia का Photographic lobby still for the film 'Hum Kahan Ja Rahe Hain'Museum of Art & Photography
हम कहां जा रहे हैं (1966) की इस फ़ोटो में, थिएटर के लिए बने कई टेबलो में से एक को दिखाया गया है.
थिएटर-बॉक्स में दर्शकों की सहूलियत के हिसाब से ही कैमरे का रुख सामने की तरफ़ रखा गया: इससे सभी किरदार फ़्रेम में दिखते हैं और ऐसा लगता है कि कहानी एक ही जगह और एक ही समय की है.
लोकप्रिय सिनेमा में टेबलो के इस्तेमाल का इतिहास इस बात की गवाही देता है कि सिनेमा को पेश किए जाने के कई तरीके, विज़ुअल मीडिया की विविध रेंज के कलात्मक पहलू से जुड़े हुए हैं, जैसे कि कैलेंडर आर्ट से लेकर म्यूरल (दीवार पर बने चित्र) तक. इसलिए, सिनेमा के क्षेत्र में टेबलो की परिकल्पना इस सोच को पुख्ता करती है कि कोई भी माध्यम अकेले दम पर कारगर नहीं हो सकता.
Unknown का Film poster for 'Chitchor'Museum of Art & Photography
टेबलो और पहचान
जब सिनेमैटिक टेबलो को पेंटिंग, थिएटर, और अन्य कलाओं के वारिस के तौर पर देखा जाता है, तब इसमें एक कलात्मक समानता दिखती है, जो कई कलात्मक विधाओं को साथ जोड़ती है.
सिनेमैटिक टेबलो अलग-अलग आयाम- दूसरा पार्ट
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के कई टेबलो सिनेमा जगत के बाहर भी मशहूर हुए हैं. इस दौरान, इन्होंने अपने रूप बदले हैं और अलग-अलग तरह से लोकप्रिय कल्पना में अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए हैं.
Unknown का Photographic lobby still for the film 'Shree 420'Museum of Art & Photography
इसका एक खास उदाहरण राज कपूर की फ़िल्म श्री 420 (1955) की यह फ़ोटो है. इसमें, राज (कपूर) और विद्या (नरगिस) एक-दूसरे से अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं और दोनों एक ही छतरी के नीचे, बॉम्बे की अचानक आई झमाझम बारिश से खुद को बचा रहे हैं.
टेबलो ने लोगों के ज़ेहन में अपनी जगह बनाई है और यह उस दौर के लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के साथ-साथ आधुनिक दौर के प्यार और शहरी परिवेश में प्रणय संबंधों के प्रतीक के तौर पर स्थापित हो गया है.
टेबलो के इस्तेमाल से, कहानी संक्षेप में बताई जा सकती है और इसकी मदद से अलग-अलग तरह के विचारों को प्रस्तुत किया जा सकता है. ऐसा करते समय, यह बात उजागर नहीं होती है कि टेबलो में पूरी कहानी का सिर्फ़ एक हिस्सा ही दर्शाया जा रहा है.
फ़िल्म की फ़ोटो में, इसका इस्तेमाल होने पर टेबलो की अहमियत आपके वॉलेट में रखी उस फ़ोटोग्राफ़ जैसी हो जाती है: जिसका काम किसी व्यक्ति की पहचान को दिखाना है और अक्सर फ़ोटो में मौजूद व्यक्ति के मुकाबले, उस फ़ोटो की अहमियत ज़्यादा हो जाती है. साथ ही, इस बात का आभास नहीं होता कि आपकी पहचान के सिर्फ़ एक पहलू को बड़े ध्यान से बनाया और प्रस्तुत किया जा रहा है.
टेक्स्ट और क्यूरेशन:
दामिनी कुलकर्णी
रेफ़रंस:
रोलैंड बार्थ्स की किताब म्यूज़िक, इमेज, टेक्स्ट
बेन ब्रीवस्टर और ली जैकब्स की किताब थिएटर टू सिनेमा: स्टेज पिक्टोरिअलिज़्म ऐंड द अर्ली फ़ीचर फ़िल्म
लेखक पीटर ब्रुक्स की किताब द मेलोड्रेमेटिक इमेजिनेशन
लेखक लोएल बर्च की किताब लाइफ़ टू दोज़ शेडोज़,
लेखक विक्टर बर्गिन की किताब द एंड ऑफ़ आर्ट थ्योरी: क्रिटिसिज़्म ऐंड मॉडर्निटी,
लेखक स्टीवन जैकब्स की किताब फ़्रेमिंग पिक्चर्स: फ़िल्म ऐंड द विज़ुअल आर्ट्स,
लेखक रवि वासुदेवन की किताब द मेलोड्रेमेटिक पब्लिक: फ़िल्म फ़ॉर्म ऐंड स्पेक्टेटरशिप इन इंडियन सिनेमा
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