समलैंगिकता को अपराध बताने वाली धारा 377 हुई रद्द

समलैंगिकता को मिला कानूनी संरक्षण

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गैब्रिएल कूपर-वीस्ज़ो द्वारा चित्रण

Gabrielle Cooper-Weisz का Supreme Court judgement on Section 377

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर, 2018 को समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया. साल 1861 में औपनिवेशिक दौर में बना यह कानून 157 सालों तक लागू रहा, जिसे पांच न्यायाधीशों की संंवैधानिक पीठ ने निरस्त कर दिया. ऐतिहासिक फ़ैसले में, पीठ ने अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध के दायरे में रखने वाली धारा 377 के एक हिस्से को “अतार्किक, बचाव के लायक नहीं, और सीधे तौर पर मनमाना” करार दिया.

LGBTQ+ (लेस्बियन, गे, बायसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर) समुदाय के लोगों के लिए, आज़ादी की यह लड़ाई चुनौतियों से भरी रही. सर्वसम्मति से दिए गए फ़ैसले में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का हवाला दिया गया. इस फ़ैसले ने दशकों पुराने उन विचारों को खत्म कर दिया जो लोगों को, बिना पूर्वाग्रह और भेदभाव के अपना जीवन जीने की आज़ादी नहीं देते.

Gabrielle Cooper-Weisz का Supreme Court judgement on Section 377

ऐतिहासिक फ़ैसला लिखने वाले पांच न्यायाधीशों की पीठ में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा, न्यायमूर्ति आर॰ एफ़॰ नरीमन, न्यायमूर्ति डी॰ वाई॰ चंद्रचूड़, और न्यायमूर्ति ए॰ एम॰ खानविलकर शामिल थे.

न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने फ़ैसला पढ़ते हुए कहा था कि लैंगिकता इंसान की सहज पहचान के मूल में बसी है और, “समाज को LGBTQ समुदाय पर सालों तक लगाए गए लांछन के लिए उनसे माफ़ी मांगनी चाहिए.”

फ़ैसला लिखने वाले न्यायामूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति ए॰ एम॰ खानविलकर ने शरीर की स्वायत्तता को व्यक्ति की गरिमा का हिस्सा माना. उन्होंने कहा कि समाज की नैतिकता किसी एक व्यक्ति के भी मौलिक अधिकारों को खत्म नहीं कर सकती. जर्मनी के लेखक योहान वुल्फ़गांग फ़ान गुटे के एक कथन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा, “मैं जो हूं सो हूं. इसलिए, मुझे वैसे स्वीकार करो जैसा मैं हूं”. यह उद्धरण सालों तक आंदोलन का प्रतीक रहा है.

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले वाक्यांश “प्रकृति की व्यवस्था” पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा, “कौन तय करेगा कि क्या प्राकृतिक है और क्या अप्राकृतिक? क्या राज्य को इसका फ़ैसला करने की इजाज़त दी जा सकती है? सेक्शुअल ओरिएंटेशन के अधिकार को नकारना, निजता के अधिकारों को नकारना है. न्यायालय का काम है कि वह औपनिवेशिक काल के किसी कानून की वजह से, नागरिकों के जीवन को मुश्किल न बनने दे.”

न्यायमूर्ति नरीमन ने इस बात पर ज़ोर दिया कि समलैंगिकता से मानसिक बीमारी का लांछन हटाया जाए. उन्होंने कहा, “साल 2017 में संसद में पारित कानून के मुताबिक, मानसिक बीमारी की मौजूदा परिभाषा साफ़ करती है कि समलैंगिकता कोई मानसिक बीमारी नहीं है. यह कानून के नज़रिए से भी एक बड़ी प्रगति है, जिसे खुद संसद ने मान्यता दी है.”

Gabrielle Cooper-Weisz का Supreme Court judgement on Section 377

आंदोलन का कानूनी इतिहास

साल 1994 में, एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिए, दिल्ली हाई कोर्ट में कानूनी याचिका दायर की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था. फिर, साल 2001 में नाज़ फ़ाउंडेशन ने दिल्ली हाई कोर्ट में एक और कानूनी याचिका दायर की जिसे फिर खारिज कर दिया गया, लेकिन आठ साल बाद, 2 जुलाई, 2009 को इसी दिल्ली हाई कोर्ट ने धारा 377 के कुछ हिस्सों को असंवैधानिक करार दिया. दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए॰ पी॰ शाह और न्यायमूर्ति एस॰ मुरलीधर ने ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था.

हालांकि, इस फ़ैसले को चुनौती दी गई. साल 2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फ़ैसले को बदल दिया, लेकिन जो चीज़ें पहले से गति पकड़ चुकी थीं वे रुकी नहीं. शीर्ष अदालत के साल 2013 के फ़ैसले की बड़े पैमाने पर आलोचना की गई, लेकिन 2018 में यह फ़ैसला बदल गया और इस बार इसे दोनों पक्षों ने स्वीकार किया.

Gabrielle Cooper-Weisz का Supreme Court judgement on Section 377

संघर्ष के पीछे की कहानी

इस जीत को हासिल करने में काफ़ी वक्त लगा. भारत में यह बदलाव लाने के लिए कई लोगों ने अथक कोशिशें की. बदलाव के हक में फ़ैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों और दिल्ली हाई कोर्ट के दो न्यायाधीशों को एक तरफ़ कर दें , तो 1994 में नाज़ फ़ाउंडेशन की स्थापना करने वालीं अंजलि गोपालन ने इसके लिए लंबी लड़ाई लड़ी. वे तब तक लड़ीं, जब तक कि नाज़ फ़ाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार के मामले में 2009 में उन्होंने जीत हासिल नहीं कर ली.

नाज़ फ़ाउंडेशन के मामले की अगुवाई करने वाले वकील आनंद ग्रोवर भी इस संघर्ष का हिस्सा रहे. इस फ़ैसले का श्रेय नौ न्यायाधीशों की उस पीठ को भी जाता है जिसने साल 2017 में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया और यह धारा 377 के प्रावधानों को असंवैधानिक करार देने का आधार बना.

अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी और...

...अरुंधति काटजू के ज़िक्र के बिना यह कहानी अधूरी है. इन दोनों ने साल 2018 के मामले की अगुवाई की थी. इसके अलावा, इस जीत के पीछे, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के उन पूर्व और मौजूदा 20 छात्र-छात्राओं का भी हाथ है जो इस मामले में याचिकाकर्ता बने.

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उज्ज्वल भविष्य की कामना

मेनका गुरुस्वामी ने पीठ से पूछा था, “हम धारा 377 के तहत दोषी नहीं हैं यह जानते हुए हमें कितनी शिद्दत से प्यार करना चाहिए? माननीय, संवैधानिक मान्यता सिर्फ़ यौन कामों को ही नहीं, बल्कि इस प्यार को भी मिलनी चाहिए.” सितंबर 2018 के उस ऐतिहासिक गुरुवार को, प्यार को संवैधानिक मान्यता मिली. इसने उम्मीद से भरे भविष्य के लिए दरवाज़े खोल दिए.

आभार: कहानी

गैब्रिएल कूपर-वीस्ज़ो द्वारा चित्रण

क्रेडिट: सभी मीडिया
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