Bohra Sisters का White Revolution
भारत में, 1970 में ‘श्वेत क्रांति’ की शुरुआत हुई. दुनिया के सबसे बड़े डेयरी विकास कार्यक्रम का नेतृत्व डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन ने किया. इस क्रांति को ‘ऑपरेशन फ़्लड’ के नाम से भी जाना जाता है. इसने दूध की कमी झेल रहे देश को, दुनिया में सबसे ज़्यादा दुग्ध उत्पादन करने वाला देश बना दिया. ग्रामीण भारत में रह रहे लाखों लोगों के लिए, डेयरी फ़ार्मिंग (दुग्ध कृषि) रोज़गार और आय का सबसे बड़ा स्रोत बन गई.
भारत में, 1960 के दशक में मवेशियों की आबादी दुनिया में सबसे ज़्यादा थी. बावजूद इसके, दुनिया में सबसे कम दुग्ध उत्पादन यहीं होता था. देश में 1961 और 1970 के बीच, दूध का कुल उत्पादन 2.04 करोड़ टन से बढ़कर सिर्फ़ 2.08 करोड़ टन पर ही पहुंच पाया था. तब देश अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए बड़े पैमाने पर आयात पर निर्भर था.
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इस बढ़ते डेरी संकट को रोकने के लिए, एक सहकारी दुग्ध आंदोलन की शुरुआत की गई. तीन दशकों तक, तीन चरणों में हुए इस आंदोलन की बागडोर सामाजिक उद्यमियों, राजनेताओं, और लाखों दुग्ध किसानों ने संभाली. विचार बहुत आसान थाः बिचौलिए को हटाओ और डेयरी किसान और उपभोक्ता के बीच की दूरी को कम करो. इस तरह ग्राहक को कम कीमत पर दूध मिलेगा और मेहनत का पूरा फ़ायदा सीधा किसान को होगा.
इससे किसान, दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित होंगे और बढ़ती आबादी को दूध से बने उत्पादों के ज़्यादा विकल्प मिल सकेंगे.
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आणंद से मिले सबक
मक्खन बनाने वाली एक निजी कंपनी Polson को, 1946 तक सरकार की मदद मिलती थी. गुजरात के खेड़ा के किसानों से दूध लेने के मामले में उसका एकाधिकार था. कंपनी इस दूध को बॉम्बे भेजती थी. Polson कथित रूप से किसानों को कम पैसा देती थी.
सरदार वल्लभभाई पटेल की सलाह पर उस साल किसान हड़ताल पर चले गए. इससे उन्होंने दूध की आपूर्ति पर वापस नियंत्रण पा लिया. फिर एक सहकारी संस्था बनाई गई, जिसका मुख्यालय आणंद को बनाया गया. इसी संस्था ने 1950 में अपने खुद के ब्रैंड, अमूल की शुरुआत की.
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अमूल की सफलता की कहानी वर्गीज़ कुरियन ने लिखी, जिन्हें बाद में ‘श्वेत क्रांति का जनक’ कहा गया. डेयरी इंजीनियरिंग में स्नातक वर्गीज़ ने, गुजरात के एक छोटे से शहर को भारत की दूध राजधानी में बदल दिया. कुरियन इस ज़िले से जुड़कर काम करने को ‘किस्मत में पहले से लिखा हुआ अनोखा काम’ कहते थे. उन्होंने ऐसी व्यवस्थाओं की शुरुआत की जिनसे उत्पादक खुद के विकास में सीधे शामिल हो सकें और ग्राहकों से भी सीधे जुड़ सकें. वे मानते थे कि शहर ‘गांवों के बलबूते फलते-फूलते हैं और उद्योग, खेती का शोषण करते हैं’. कुरियन ने भारतीय ग्रामीण विकास की नए सिरे से कल्पना की.
यह काम उन्होंने अकेले नहीं किया. इसमें उन्हें त्रिभुवनदास किशिभाई पटेल की मदद मिली. किसान कार्यकर्ता त्रिभुवनदास, अमूल के संस्थापक चेयरमैन थे, जिन्होंने कुरियन को नौकरी दी थी.
कुरियन के साथ हरिचंद मेघा दलाया भी थे, जो पेशे से इंजीनियर थे. दोनों ने मिलकर भैंस के बचे हुए दूध से, बच्चों के लिए ड्राई मिल्क (दूध पाउडर) और बेबी फ़ूड बनाने की तकनीक विकसित की. दुनिया के बाकी देशों में भैंस के दूध को स्किम्ड मिल्क पाउडर (बिना मलाई वाले दूध का पाउडर) के तौर पर इस्तेमाल करने से परहेज़ किया जाता था, क्योंकि इसमें लैक्टोज़ (दूध में पाई जाने वाली शर्करा) और सॉलिड (पानी निकलने के बाद बचने वाले फ़ैट, प्रोटीन, विटामिन वगैरह) की मात्रा ज़्यादा होती है. दलाया ने संसाधनों का पूरा इस्तेमाल कर भारतीय डेयरी उत्पादन के लिए नए आयाम खोल दिए.
कुरियन, किशिभाई, और दलाया, ये तीनों ‘अमूल त्रिमूर्ति’ थे.
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जब 1964 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, पशुओं के चारे की एक फ़ैक्ट्री का उद्घाटन करने के लिए आणंद पहुंचे, तो उन्हें महसूस हुआ कि आणंद मॉडल को पूरे भारत में अपनाया जा सकता है. इस तरह एक आंदोलन की शुरुआत हुई. शास्त्री ने 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की शुरुआत की और कुरियन को उसका प्रमुख बनाया.
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ऑपरेशन फ़्लड के अलग-अलग चरण
भारत में ऑपरेशन फ़्लड, तीन दशकों तक, तीन चरणों में चला. शुरुआती पूंजी, स्किम्ड मिल्क पाउडर और बटर ऑइल को बेचकर जुटाई गई. ये चीज़ें, विश्व खाद्य कार्यक्रम के ज़रिए यूरोपियन इकनॉमिक कम्यूनिटी से, खाद्य सहायता के तौर पर मिली थीं.
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पहला चरण 1970 से 1980 तक चला. इस दौरान 15 लाख किसान परिवारों ने 10 राज्यों के 27 मिल्कशेड (दूध इकट्ठा कर, उसे बेचने के लिए तैयार करने वाली जगह) को दूध की आपूर्ति शुरू की. ग्रामीण स्तर पर 1960 के दशक में रोज़ाना 4.6 लाख लीटर की खरीद हो रही थी, जो बढ़कर 22 लाख लीटर प्रतिदिन हो गई. अगले चरण में, 1981 और 1985 के बीच, 43,000 गांवों के 42.5 लाख दूध उत्पादक इस ऑपरेशन से जुड़ गए. इस समय तक 136 मिल्कशेड सक्रिय हो गए थे, जो 290 शहरी बाज़ारों में दूध बेचने लगे. जैसे-जैसे उत्पादकों की सहकारी संस्थाएं सीधे दूध बेचनी लगीं, उनका फ़ायदा बढ़ता गया.
इसके बाद, 1990 के दशक के मध्य तक चले आखिरी चरण में, आंदोलन से जुड़ने वाले किसान परिवारों की संख्या एक करोड़ तक पहुंच गई. अब जानवरों के स्वास्थ्य की देखभाल और बेहतर प्रजनन तरीकों पर ज़ोर दिया जाने लगा. जल्द ही आत्मनिर्भरता नज़र आने लगी.
उस दौर की एनडीडीबी रिपोर्ट के मुताबिक, ‘यह उद्योग इतने दूध और दुग्ध उत्पादों का उत्पादन करता है कि देश को किसी भी डेरी उत्पाद को आयात करने की ज़रूरत नहीं है.’
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महिला किसानों का सशक्तीकरण
भारत में मवेशियों को संभालने की ज़िम्मेदारी आम तौर पर महिलाओं की ही रही है. इस तरह, भारतीय डेयरी की सूरत बदलने में महिला डेयरी किसानों की बड़ी भूमिका थी और अब भी बनी हुई है. करीब 17 लाख महिलाएं ऑपरेशन फ़्लड का हिस्सा थीं और ऐसी कई सहकारी संस्थाएं भी शुरू हुईं जिनकी सदस्य सिर्फ़ महिलाएं हैं.
कुछ अनुमानों के मुताबिक करीब 7.5 करोड़ भारतीय महिलाएं, डेयरी से जुड़े काम करती हैं. बीते सालों में डेयरी से जुड़ीं कई महिला उद्यमियों ने इनाम जीते हैं और करोड़पति बनी हैं. कुरियन के बाद, 1998 से 2014 तक डॉ॰ अमृता पटेल ने बतौर चेयरपर्सन, एनडीडीबी का नेतृत्व किया.
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ऑपरेशन फ़्लड के बाद
ऑपरेशन फ़्लड की शुरुआत में दूध का उत्पादन दो करोड़ टन था. यह ऑपरेशन फ़्लड के अंत में 7 करोड़ टन तक पहुंच गया. भारत, दूध की प्रति व्यक्ति खपत को दोगुना करने में सफल रहा. इससे दूध की राशनिंग और विदेशी सहायता पर निर्भर रहने का दौर पीछे छूट गया. भारत की श्वेत क्रांति इस बात की मिसाल है कि मिलकर कुछ हासिल करने की महत्वाकांक्षा में कितनी शक्ति होती है.
बोहरा सिस्टर्स द्वारा चित्र
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